पथ की पुकार / अनीता सैनी
२८दिसंबर२०२४
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तुम कभी मत कहना
कि संयुक्त परिवार टूट रहे हैं,
पुश्तैनी घर ढह रहे हैं।
जर्जर होते दरवाज़े
अब किसी का हाथ पकड़कर नहीं पूछते—
"तुम कौन हो?
कहाँ से आए हो?
और कहाँ जा रहे हो?"
मत पूछना कि घर का बड़ा बेटा
छत बनकर क्यों नहीं ठहरता।
खिड़कियाँ मौन क्यों हैं?
तुम माफ कर देना,
माफ करना आसान हो जाता है
जब पता चलता है
कि ये गलियाँ आपको इसलिए धकेल रही थीं,
ताकि आप उन रास्तों से मिल सको
जो आपको पुकारते रहे हैं।
गहरी अनहद पुकार, एक धीमा स्वर,
जो आपकी आत्मा ने सुना हो,
आत्मा समझ को समझा सके
कि पथ पुकारते हैं, मंज़िल नहीं।