मंगलवार, नवंबर 26

छांव में छिपे रंग

छांव में छिपे रंग / अनीता सैनी 
२४नवंबर २०२४
….

एक दिन तुम
गहरी नींद से जागोगे 
और पाओगे
मिथ्या, कल्पना जैसा कुछ नहीं होता,
जो सभी कुछ होता है, यथार्थ होता है।

तब तुम्हें दिखेंगे
श्वास लेते स्वप्न।
नवंबर की गुनगुनी धूप
तुम्हारी पीठ पर
कई-कई कविताएँ लिखेगी।

परंतु तब तुम पढ़ना
ठंड में ठिठुरते प्रतीक्षारत पत्तों की कहानियाँ।
तुम्हारे भाव तुम्हें विचलित करेंगे,
वे प्रतीक्षा को मिथक 
और
प्रीत को कल्पना कहेंगे।

तुम्हारे आस-पास तुम्हें कहीं नहीं दिखेगी
विरह की छाँव
और
वे विरहणियाँ, जो …।

तब तुम गाँव लौट जाना।
पगडंडियाँ भ्रमित करेंगी 
ईर्ष्यालु काँटे पाँव को चोटिल करेंगे।
 फिर भी तुम्हें 
 कांस से घायल हवा पुकारती हुई आएगी,
वह दिखाएगी
बरगद के नीचे बने चबूतरे को,
जहाँ
दुःख बहुतों द्वारा कुचला जाता है।



रविवार, नवंबर 17

हिज्र के साए


हिज्र के साए/ अनीता सैनी
१६ नवंबर २०२४

एक दिन
पर्वतों की पीड़ा धोने
अंबर ने बरसाया था हिज्र का नमक।

खपरैल टूटी थी समंदर की,
वे चुपचाप पी गए हर बूंद,
पर नदियाँ प्यासी रह गईं।

उखड़ी साँसें,
प्यास का बोझ 
वे भटकती रहीं जंगल-जंगल।

उस नीले कोरे काग़ज़ की तरह
जिसे न प्रेमी से लिखा गया,
न ही प्रेमिका से पढ़ा गया।

वह तारीख बनकर
धरती की आत्मा में धड़कता रहा,
उगता रहा
वर्ष दर वर्ष,
मरुस्थल की काया पर
नागफनी का दर्द लिए।



गुरुवार, नवंबर 14

अवसान के निशान


अवसान के निशान / अनीता सैनी 
९नवंबर २०२४
…..

जैसे-जैसे
उम्र का सिरहाना लेकर काया सोती है,
असल में तब वह जागती है।
तब वह कविताएँ नहीं रचती,
वह अपने ही पैरों के निशान लिखती है।

और एक दिन वह अपने ही
रचे को नकार देती है,
और कहती है —
"यह जो कहा गया है, सब झूठ है,
सच इन्हीं के कहीं पीछे छिप गया है,
बहुत पीछे।"

जैसे- 
चाँद छिप जाता है बादलों की ओट में,
और उसके साथ जुड़ जाता है,
होने न होने का गहरा आभास।

और तब,
सच की ऊँगली पकड़कर चलना
उसके लिए
एक और झूठ बन जाता है।

रविवार, नवंबर 3

अंतिम थपकी

अंतिम थपकी/ अनीता सैनी

२ नवंबर २०२४

….

जब जीवन के आठों पहर सताते हैं,

और तब जो थपकी देकर सुलाती है,

वही मृत्यु है।


 चार्ल्स बुकोवस्की ने कहा-

मृत्यु और अधिक मृत्यु चाहती है, 

और उसके जाल भरे हुए हैं:

मैंने कहा- 

नहीं, मृत्यु और अधिक मृत्यु नहीं चाहती है

वह और अधिक समर्पण चाहती है।

आसक्त जीवन से

प्रेमिकाओं वाला प्रेम चाहती है।


बहुत बुरी लगती हैं उसे पत्नियों वाली दुत्कार,

 समय गवाए बगैर

उसकी व्याकुलता भेजती है

छोटे-छोटे संदेश, छोटी-छोटी आहटें।


परंतु! उन्हें पढ़ा और सुना नहीं जाता,

अनभिज्ञता की आड़ में

उन्हें अनदेखा-अनसुना किया जाता है।


एकाकीपन नहीं है न किसी के पास 

कोई कैसे पढ़ें और सुनें?

तुम उन्हें पढ़ना और सुनना —

उसे पढ़ना-सुनना शांति को स्पर्श करने जैसा है

गुरुवार, अक्तूबर 24

अज्ञात की ओर

अज्ञात की ओर /अनीता सैनी 
२०अक्टूबर २०२४
...
उस दिन
उस
दिशा के एक कोने ने
विचारों से भरे भारी-भरकम
नियति के मंगलसूत्र को उतारकर
संभावना की छोटी-सी अंगूठी पहनी थी।
तुम ठीक से देख नहीं पाए।
उस दिन वह
भीड़ में अकेली
और
बेड़ियों में आज़ाद थी।

गुरुवार, अक्तूबर 3

प्रवाह के पार

प्रवाह के पार /अनीता सैनी 
३०सितंबर २०२४
….
ये जो क़लम से कागज पर
भावों की नदियाँ बहती हैं, ये 
सुखों की कहानियाँ कहती हैं,
तुमने शायद ठीक से पढ़ी नहीं।
वैसे ही जैसे
तुमने ठीक से देखा नहीं कि
मछलियाँ पानी के प्रवाह के
विपरीत नहीं तैरती,
वे अपने प्रस्थान बिंदु
उस अथाह सागर में फिर से 
मिलने दौड़ती हैं
जहाँ से वे बिछड़ी थीं।

यह दृश्य विचारों का सूक्ष्म बिंदु है,
वैसे ही जैसे
दुःख की चोटी के गर्म पत्थर पर
जो घुटने मोड़ कर बैठा है,
और जो
बार-बार तलवों में जलन की पीड़ा से
उँगलियाँ उचका रहा है,
वह कोई और नहीं, सुख ही है।

मंगलवार, सितंबर 24

भोर का पक्षी

भोर का पक्षी / अनीता सैनी 
२१सितंबर२०२४
…..
 सदियों में कभी-कभार 
एक-आध ऐसी रात भी आती हैं,
जब उजाले की प्रतीक्षा में
भोर का यह पक्षी सारी रात गाता है
विरह-गीत।

 प्रिय के 
पदचाप नहीं सुनाई देने पर 
वह पत्तों पर चिट्ठी लिखता है 
तब और कुछ नहीं, बस हल्की पीड़ा
और उसकी सांसें ठंडी पड़ जाती हैं।

ऋषि-मुनियों के दिए श्राप,
एक-एक कर
उसकी आत्मा पर उभर आते हैं।
और वह 
अहिल्या की तरह पत्थर हो जाती है।

वे लोग कहते हैं-
तब और कुछ नहीं!
बस,उस मौसम में वह उड़ नहीं पाता।

गुरुवार, सितंबर 19

प्रेम

प्रेम / अनीता सैनी 
१६सितंबर२०२४
…..
मरुस्थल वैराग्य नहीं 
प्रेम है!
प्रेम! बर्फ़ का मरुस्थल है
शांत - शीतल पवित्र 
ठण्डा! एकदम ठण्डा!!
प्रेम!
सांसों का मौन विलाप नहीं 
पुराने पीले पड़ चुके
 इतिहास के पंन्नों से होकर गुजरा 
एक नया विलाप भी नहीं 
तुम! 
पीड़ा को इंद्रियों में तौलकर 
स्वयं भ्रमित हो 
वह ठण्डी ज्वाला है
प्रेम! 
धरती के नमक में डूबी आँखें हैं।

गुरुवार, सितंबर 12

खिड़कियों से परे

खिड़कियों से परे / अनीता सैनी 

७सितम्बर२०२४

…..

उनकी 

आत्मा में गहरी संवेदनाएँ हैं 

वे कहते हैं 

स्त्रियाँ गाय हैं चिड़िया हैं 

भेड़ और बकरिया भी हैं 

उनके कंधों पर सरकती घरों की दीवारें 

वे मुख्य द्वार से निकलने की हकदार नहीं हैं 

वे दरारों और खिड़कियों से झाँकतीं हैं 

जैसे झाँकते हैं दरारों से नीम-पीपल 

समय के द्वारा

समय-समय पर दरारें

गोबर-मिट्टी के गारे से लिपी-पुती जाती हैं 

उनकी अस्थिर आँखें बोलने में असमर्थ हैं 

इस तरह उनके कान उनके के लिए मुँह हैं 

परंतु

वे वृक्ष नहीं हैं 

उन्हें सदियों से वृक्ष के चित्र दिखाकर 

उनसे 

फल-फूल और लकड़ियाँ प्राप्त की जाती रही हैं 

नाइट्रोजन की अपेक्षा ऑक्सीजन के कीड़े 

उन्हें अधिक तेजी से निगलते रहे हैं 

फिर भी वे नींद से जाग नहीं पाई 

वे नहीं जान पाई कि वे स्त्रियाँ हैं 

उन्होंने स्वयं के लिए अंधेरा चुना 

उसमें उन्हें 

उजाले के चमकते दाँत व नाख़ून दिखाई देते हैं 

उन्हें दाँत और नाख़ून ही दिखाए गए हैं 

वे कहती हैं -

“हे अंधेरा ! तुम में चेतना है 

तुम में ग्रेवीटी है

तुम सपनों के ब्लेकहॉल हो

तुम पुकारते हो तुम्हारी पुकार हमें सुनती है 

तुमसे बातें करना महज पागलपन नहीं 

अस्तित्व है तुम्हारा 

तुम्हारा गलबाँह में जकड़ना सुकून प्रद है  

गहरे समंदर में डूबने पर 

तलहटी की इच्छा कहाँ रहती है?”

इस तरह वे 

भावनाओं की गहरी घाटियों से उलझती 

और डूबती रही बहुत गहरे में 

 गाय तो कभी चिड़िया  की तरह।

गुरुवार, अगस्त 29

रास्ते में

रास्ते में /अनिता सैनी 
२७अगस्त२०२४
…..

मेरे बच्चे 
तुम दुःख-शोक मत मनाना 
अंबर की अपनी नियति है 
बादल आते हैं 
कुछ पल ठहर चले जाते हैं 
उसकी पुकार पर आँखें मूंद लेना
इस राह पर तुम अकेले नहीं हो 
तुम देखना!
उस दिन
बहुत जोरों की बरसात होगी 
बरसात में बरसते सुख समृद्धि के बीज 
दो-दो सूरज निकलेंगे 
वे दोनों सभी की पीड़ा हर लेंगे 
खुशियों के बीज अंकुरित होंगे 
मेरे बच्चे!
ईश्वर है
वह सभी की पुकार सुनता है
जैसे 
एक बहरा सुनता है संगीत
वह देखता है
सभी के क्रिया-कलाप  
जैसे 
एक अंधा देखता है सृष्टि
वह लिखता है सभी का भाग्य 
जैसे 
हाशिए को नकार 
एक कवि लिखता है अ-कविता।

गुरुवार, अगस्त 22

घूँट

घूँट /अनीता सैनी 
२०अगस्त२०२४
.....
चाँद सुलाने आया 
न सूरज जगाने 
ना हीं 
हवा ने कोई शोर किया 
 हे कान्हा!
बात सिर्फ़ इतनी-सी थी
सूखे दरख़्त के कोंपलें फूटने लगीं 
वह 
राहगीरों को आवाज़ देने लगा 
इसी पर राणा झुंझला उठे 
और कहा-
“मीरा को यातनाओं का जहर 
न पिलाया जाए 
वह इसकी आदी हो चुकी है।"
मैं तो मुस्कुराई भर थी।

गुरुवार, अगस्त 15

जीवन

जीवन / अनीता सैनी 
१३अगस्त२०२४
…..
मिट्टी बुहारती बरगद की 
बरोह-सा झूलता जीवन
मैं उस पर
मन्नतों की गाँठ बनकर ठहरा रहा 

ज्यों
प्रेमिकाओं की आँखों से बहते मनके 
सिसकियों के साथ ठहर जाते हैं सांसों पर 
ज्यों 
अवचेतन में ठहरा है अस्तित्व 
चेतना की प्रतीक्षा में 

आह! जीवन
तुझे 
सूरज का ताप 
धरती की गर्म साँसें झुलसाती रही 
फिर भी तू 
नीचे की ओर मजबूती से लटका हुआ 
एकाकीपन को जीता रहा।

बुधवार, जुलाई 31

अकेला

अकेला / अनीता सैनी 
३०जुलाई२०२४
……
मैंने 
वृक्ष की छाँव का मोह छोड़ दिया
फूलों से लदी टहनियों का भी 
छोड़ देना 
युद्ध से मुक्ति पाना है 
स्वयं के साथ लड़े जाने वाला युद्ध 
नहीं!वृक्ष की छाया नहीं थी वह 
वह एक भ्रम था जिसे 
मैं आजीवन पोषित करता रहा 
नहीं! वह भ्रम भी नहीं था 
वह मेरे 
मन के द्वारा भावों का बुना जाल था 
मकड़ जाल
तब मैं मकड़ी था और वह मकड़ जाल 
जाल में लिपटी काया दरकने लगी  
जैसे 
दरक जाती है ओस से बनी दीवार
मदद करो 
मदद करो, जीवन आवाज़ लगता रहा 
छाँव, भ्रम और मकड़ जाल हँसते रहे 
हँसना इनके खून में था 
परंतु उसे पता था 
मरुस्थल पाँव नहीं जलता 
ना ही वहाँ प्यास सताती है 
मरुस्थल में सतत बहता जीवन 
वीरानियाँ को सींचता है
हँसता नहीं।

बुधवार, जुलाई 17

गिरह

गिरह / अनीता सैनी 
१६ जुलाई २०२४
…….
गर्भ में पलता भविष्य 
अतीत के 
फफोलों पर लुढ़कता आँखों का गर्म पानी 
तुम्हारी करुणा की कहानी कहता है 
 
नथुनों से उड़ती आँधी
दिमाग़ के कई-कई किंवाड़ तोड़कर 
वर्तमान को गढ़ती  
सपनों पर पड़े निशान ही नहीं 
तुम्हारे वर्चस्व की दौड़ पढ़ाती है 


सांसों में फूटते गीत,भावों का हरापन 
कंदराओं का शृंगार ही नहीं 
तुझ में धरा को पल्लवित करता है 

हे मनस्वी!
मुक्त कर दो उन तमाम स्त्रीयों को
जो झेल रही हैं गंभीर संकटकाल 
तुम्हारी गिरह में…


शनिवार, जुलाई 13

आह! ज़िंदगी


आह! ज़िंदगी / अनीता सैनी 

१२जुलाई २०२४

……

…..और कुछ नहीं 

वे स्वीकार्य-सीमा की मेड़ पर खड़े 

गहरे स्पर्श करते अंकुरित भाव थे 

न जाने कब बरसात का पानी पी कर 

 अस्वीकार्य हो गए 

आह! ज़िंदगी लानत है तुझ पर 

भूला देना  खेल तो नहीं 

इंतजार में हैं वे आँखें वहीं जहाँ बिछड़े थे 

बार-बार उसी रास्ते की ओर 

पैरों की दौड़ का 

ये सच भी तूने भ्रम हेतु गढ़ा  

वे नहीं लौटेंगे 

कभी नहीं लौटेंगे 

सभी कुछ जानते होते हुए भी 

मैंने 

प्रतीक्षा की बंदनवार में 

साँसों की कौड़ी जड़

स्मृतियों के स्वस्तिक 

आत्मा की चौखट पर टांग दिए हैं 

एक बार फिर तुझे सँवारने के लिए।

शनिवार, जुलाई 6

बरसाती झोंका

बरसाती झोंका / अनीता सैनी 
०४जुलाई २०२४
………
उन दिनों 
ब्रिज पर टहलते हुए 
हमें
चुप्पियों ने जकड़ लिया 
आत्मा पर हथकड़ियाँ डाली 
अब हम 
प्रेम की कोठरी में कैदी थे 
अंधेरा डराता ना उज्जाला हँसाता 
हम रात-रानी के फूल से महकते 
तब भी हमें 
चुप्पियों ने जकड़ रखा था
परंतु 
तब हम बातें करते थे
वे मेरे गले का ऐसा हार थे 
जिससे मैं 
दुनिया के सामने 
ना धारण कर सकती थी
 और ना ही 
उतार कर फेंक सकती थी 
मोह के दल-दल में धँसते  
मेरे चोटिल भाव 
कंठ ने सिसकियाँ सोखी 
उनकी बोलती आँखें  
वे ब्रिज से सटे 
जंगल की ओर संकेत करतीं 
कैसे कहती उन्हें?
मेरे पाँव ने 
स्वार्थ की चप्पल पहनी हैं 
जिससे तुम अनभिज्ञ हो।

सोमवार, जून 24

अनुभूति


अनुभूति / अनीता सैनी 

२३जून२०२४

……

प्रकृति पर मलकियत जताने 

वाले वे सभी उसके मोहताज थे 

यह उन्हें नहीं पता था 

क्योंकि उन दिनों

वे सभी मोतियाबिंद से जूझ रहे थे 

उनके दिमाग़ की गहराई में सिर्फ़ 

दो ही प्रतिबिंब बनते  स्त्री और पुरुष 

वे उनके होने का आकलन काया से करते 

रूढ़ियाँ उन्हें उनकी जमीन के साथ 

 कदमों के आंकड़े गिनवातीं 

वहाँ सभी कुछ ऊल-जलूल अवस्था में था 

जैसे लताओं के सिरे उलझे हों आपस में 

कितने ही पुरुषों की काया में 

 स्त्रियों की आत्मा निवास कर रही थी

 और न जाने

 कितनी ही स्त्रियों के पास पुरुषों की आत्मा थी 

वे सभी स्त्री-पुरुष दुत्कारे जा रहे थे 

क्योंकि केंद्र में काया थी 

दुत्कारने का 

यह खेल सदियों से चल रहा था 

सब कुछ क्षणिक होते हुए भी 

वे नाक के साथ जात बचाने में लगे थे 

उन्होंने कहा-“हम बुद्धि के गेयता है।”

वे सभी मेरे लिए स्त्री थे न पुरुष 

वे मात्र मेरी कथा के पात्रों के चरित्र थे 

मैं स्वयं के लिए भी एक चरित्र थी 

मेरी आत्मा 

मेरी काया को पल-पल मरते देख रही थी 

और पढ़ रही थी उसका चरित्र 

भ्रम की नदी के पार उतरने 

और खोने-पाने की होड़ से परे

उन दिनों की यह सबसे सुखद अनुभूति थी।

बुधवार, जून 19

भावनाएँ


भावनाएँ / अनीता सैनी 

१८जून२०२४

……

ठस होती आत्मा में 

भावनाएँ जब भी लौटती हैं 

 माथे पर

तिलिस्मी इन्द्रधनुष सजाए लौटती हैं 

मानो तीरथ से लौटी हो 

बखान भाव से परे 

भावों में

छोटी-छोटी नदियों की निर्मलता 

के साथ 

उदगम में विलुप्त होने का भाव लिए लौटती हैं 

पाँव में छाले, चंदन का टीका 

हाथ में पंचामृत  

मरुस्थल में पौधा सींचने 

दौड़ती हुई आती हैं 

कहती हैं-

“तुम्हारे घर के बंद किंवाड़ देखकर भान होता है 

अस्त होता सूरज नहीं! हम तुम्हें डंकती हैं!!”



मंगलवार, मई 14

वह प्रेम में है


वह प्रेम में है /अनीता सैनी 

१२मई२०२४

…….

तुम उसे 

दुर्बल मत कहो 

वह प्रेम में है 

पाप-पुण्य से परे 

माटी बीज  मरने नहीं देती 

वह अपनी कोख़ नहीं कुतरती 

चिथड़े-चिथड़े हुए प्रेत डरौना को 

जब तुमने खेत से उठाकर 

आँगन में टाँगा  था 

तब भी उसने 

तुम्हारी मनसा को मरने नहीं दिया 

साँझ के साथ उसकी 

बढ़ती-घटती डरावनी परछाइयाँ 

देख कर भी उसने उसे 

 ज़िंदा रखा 

एक ने 

सिला था उसके लिए झिंगोला 

चाँद पर बैठी 

उस दूसरी स्त्री ने काता था सूत

यह उनके अधूरेपन में उपजे 

अध्यात्म के पदचाप नहीं थे 

उसकी 

पूर्णता की दौड़ थी।


गुरुवार, अप्रैल 18

खँडहर

चलन  को पता है

समय की गोद में तपी औरतें 

चूड़ी बिछिया पायल टूटने से 

खँडहर नहीं बनती 

उन्हें खँडहर बनाया जाता है

चलन का जूते-चप्पल पहनकर 

घर से कोसों-दूर 

सदियों तक एक ही लिबास में 

भूख-प्यास से अतृप्त भटकना 

तृप्ति की ख़ोज  

रहट का मौन 

कुएँ की जगत पर बैठ

उसका 

खँडहर, खँडहर… चिल्लाते रहना 

खँडहर, खँडहर…का गुंजन ही

उसे गहरे से तोड़कर बनाता है

खँडहर।

…………..

खँडहर / अनीता सैनी 

१५अप्रेल २०२४

शनिवार, अप्रैल 6

उदासियाँ

उदासियाँ / अनीता सैनी 

५अप्रेल२०२४

….

मरुस्थल से कहो कि वह 

किसके फ़िराक़ में है?

आज-कल बुझा-बुझा-सा रहता है?

 जलाती हैं साँसें 

भटकते भावों से उड़ती धूल 

धूसर रंगों ने ढक लिया है अंबर को 

आँधीयाँ उठने लगीं हैं 

 सूखी नहीं हैं नदियाँ 

वे सागर से मिलने गईं हैं 

धरती के आँचल में

 पानी का अंबार है कहो कुछ पल 

प्रतीक्षा में ठहरे 

बात कमाने की हुई थी 

क्या कमाना है?

कब तय हुआ था?

उदासियों के भी खिलते हैं वसंत 

तुम गहरे में उतरे नहीं, वे तैरना भूल गईं।

                                                              

रविवार, मार्च 31

पाती


पाती / अनीता सैनी 

३०मार्च २०२४

……

उस दिन पथ ने 

पथिक को पाती लिखी 

बेमानी लिखी न झूठ  

सावन-भादो के गरजते बादल 

सुबह की गुनगुनी धूप लिखी 

मीरा के जाने-पहचाने पदचाप 

 बाट जोहती आँखें 

वही विष  के प्याले लिखे

पनिहारिन के पायल की आवाज़ 

कुछ काँटे कुछ पत्थर लिखे

थोड़े फूल और थोड़ी छाँव लिखी 

और लिखा 

स्मृतियों का पाथेय प्रतीक्षा को

प्रेम के गहरे रंग में रंग देता है 

तुम प्रमाण मत देना

क्योंकि जितनी झाँकती है प्रीत

किवाड़ों और खिड़कियों से 

उतनी ही तो नहीं होती

मौन ने भी लिखे हैं कई गीत 

कई कविताएँ लिखी हैं अबोलेपन ने भी।

शुक्रवार, मार्च 1

खरोंच


खरोंच /  कविता / अनीता सैनी

…….

हम दोनों ने

उदय होते सूरज को प्रणाम किया

दुपहरी होते-होते वहाँ से निकल गए 

हमारा चले आना उनके लिए वरदान था 

साँझ सफ़र में कई-दफ़'आ मिली 

 हमने रात नहीं देखी

रात के लुभावने रेखाचित्र देखे

उसने कहा-

“कभी मिलना हो रात्रि से

तब तुम ठहर जाना

शीतलता की गोद 

उजाले का प्रमाण है वह।”

रात का भान भूल चुकी  मैं 

हमेशा उससे दुपहरी का ज़िक्र करती 

दुपहरी मेरे रग-रग में बसी थी 

जैसे बसा था मेरे हृदय में देहातीपन

मैंने कहा-

“देहाती स्त्रियाँ धतूरे-सी होती हैं 

वह सिर्फ़

कविता-कहानियों में तलाशी जाती हैं।”

धतूरे के ज़िक्र से उसे

महाशिवरात्रि का स्मरण हो आया

समर्तियों की उड़ती धूल, किरकिरी

उसकी आँखों में रड़कने लगी 

सहसा मुझे ख़याल आया

वह मरुस्थल में रहने का आदी नहीं था।


रविवार, फ़रवरी 25

प्रेम


प्रेम का संकेत मिलते ही अनुगामी बन जाओ उसका

हालाँकि उसके रास्ते कठिन और दुर्गम हैं

और जब उसकी बाँहें घेरें तुम्हें

समर्पण कर दो

हालाँकि उसके पंखों में छिपे तलवार

तुम्हें लहूलुहान कर सकते हैं, फिर भी

और जब वह शब्दों में प्रकट हो

उसमें विश्वास रखो

हालांकि उसके शब्द तुम्हारे सपनों को

तार-तार कर सकते हैं- खलील जिब्रान


फिर भी तुम्हें प्रेम को 

जीवंत रखना होगा

वह मर जाता है

कुम्हल जाता है ततक्षण

इंतज़ार नहीं करता

उसे जीवंत रखना पड़ता है 

कि जैसे-

साँझ में सिमट जाता है दिन

बेपरवाह हो डूब जाता है

तुम्हें डूब जाना होगा

ढलती रात उतर जाती है

होले-होले भोर के कंठ में 

वैसे ही तुम्हें

प्रेम को उतार लेना होगा कंठ से हृदय में 

प्रेम के गर्भ की समयावधि नहीं होती

कि तुम पा सको उसे प्रत्यक्ष

एकतरफ़ा आत्मा 

जन्म जन्मांतर सींचती है

प्रेम सींचना ही पड़ता है 

जैसे-

सींचता है अंबर पृथ्वी को

गलबाँह में जकड़े

वैसे ही तुम्हें

प्रेम को जकड़ लेना होगा गलबाँह में

सींचना होगा जन्म जन्मांतर।

                             

रविवार, फ़रवरी 18

युद्ध

युद्ध  / अनीता सैनी

…..

तुम्हें पता है!

साहित्य की भूमि पर

लड़े जाने वाले युद्ध

आसान नहीं होते

वैसे ही 

आसान नहीं होता 

यहाँ से लौटना

इस धरती पर ठहरना 

मोगली का जंगल का राजा हो जाना जैसा है

पशु-पक्षी चाँद-सूरज और हवा-पानी

सभी उसका कहना मानते हैं

उसकी बातें सुनते हैं 

दायरे में सिमटा

 तुम्हारा

मान-सम्मान, मैं मेरे का विलाप व्यर्थ है

व्यर्थ है रिश्तों की दुहाई देना

व्यर्थ है

एक काया को सौगंध में बाँधना 

व्यक्ति विशेष से परे 

ये युद्ध 

आत्माएँ लड़ती हैं

वे आत्माएँ

जो बहुत पहले

देह से विरक्त हो चुकी हैं।

                              

रविवार, फ़रवरी 11

धोरों का सूखता पानी


धोरों का सूखता पानी / कविता / अनीता सैनी

….

उस दिन

उसके घर का दीपक नहीं

सूरज का एक कोर टूटा था

जो ढिबरी वर्षों से 

आले में संभालकर रखी है तुमने 

वह उसी का टुकड़ा है।


धोरों की धूल का दोष नहीं

सदियाँ बीत गईं

यहाँ! दुःख, पश्चात्ताप के पदचिह्न ही नहीं!

नहीं!! मिलते वे देवता

जो पानी के लिए पूजे जाते थे

इंसान ही नहीं!

पानी भी बहुत गहरे चला गया है

 तुम! पूछो रोहिड़े से

कैसे बहलाता है?भरी दुपहरी में अपने मन को।


तुम! ये जो बार-बार

पानी में डुबोकर

कमीज़ झाड़ रहे हो न

इस पर काले पड़ चुके अश्रु नहीं धुलेंगे

उस लड़की के पिता ने कहा है-

“मैं पिछले दो दशक से सोया नहीं हूँ।”


मंगलवार, फ़रवरी 6

पीड़ा

पीड़ा / कविता / अनीता सैनी

६फरवरी २०२४

……

उन दिनों

घना कुहासा हो या 

घनी काली रात 

वे मौन में छुपे शब्द पढ़ लेते थे

दिन का कोलाहल हो या

रात में झींगुरों का स्वर  

वे चुप्पी की पीड़ा

बड़ी सहजता से सुन लेते थे 

प्रेम की अनकही भाषा पर

गहरी पकड़ थी 

समाज के बाँधे बंधन

अछूते थे उसके लिए

यही कहा-

“तुम पुकारना, मैं लौट आऊँगा।”

परंतु जाते वक़्त सखी!

पुकारने की भाषा नहीं बताई।

शनिवार, जनवरी 27

सुनो तो

सुनो तो / अनीता सैनी

२६जनवरी २०२४

…..

देखो तो!

कविताएँ सलामत हैं?

मरुस्थल मौन है मुद्दोंतों से

अनमनी आँधी  

ताकती है दिशाएँ।


पूछो तो!

नागफनी ने सुनी हो हँसी

खेजड़ी ने दुलारा हो

बटोही

गुजरा हो इस राह से 

किसी ने सुने हों पदचाप।


सुनो तो ! 

जूड़े में जीवन नहीं

प्रतीक्षा बाँधी है

महीने नहीं! क्षण गिने हैं 

मछलियाँ साक्षी हैं 

चाँद! आत्मा में उतरा 

मरु में समंदर!

यों हीं नहीं मचलता है।

               

    

सोमवार, जनवरी 22

तुम्हारे पैरों के निशान

तुम्हारे पैरों के निशान / अनीता सैनी

२०जनवरी २०२४

…..

उसने कहा-

सिंधु की बहती धारा 

बहुत दिनों से बर्फ़ में तब्दील हो गई है

उसके ठहर जाने से 

विस्मय नहीं

सर्दियों में हर बार

बर्फ़ में तब्दील हो जम जाती है 

न जाने क्यों?

इस बार इसे देख! ज़िंदा होने का

भ्रम मिट गया है

दर्द की कमाई जागीर

अब संभाले नहीं संभलती 

पीड़ा से पर्वत पिघलने लगे हैं 

दृश्य देखा नहीं जाता  

दम घुटता है 

ऑक्सीजन की कमी है?

या

कविता समझ आने लगी हैं।

                      

शुक्रवार, जनवरी 12

नदी

नदी / अनीता सैनी ‘दीप्ति’
....

कई-कई बार, कि हर बार 
तू बह जाने से रह गई?
कुछ तो बोल! क्रम भावों का टूटा 
आरोह-अवरोह बिगड़ा भाषा का 
कि कविता सांसें सह गई?

कैसे सोई धड़कन?
दरख़्त के दरख़्त कट गए!
हरी लकड़ियाँ चूल्हे में रोई नहीं?
मरुस्थल हुई मानवता या 
ज्वार नथुनों से बहा नहीं ?
क्वाँर की बयार कह गई 
कैसे रही तू ज़िंदा?
कैसे जीवन सह गई?

महामौन बिखरा अंबर का 
कैसे लौटी हवा आँगन की?
भावना विचलित बादलों की
गरजती हुए कह गई- “कि एक नदी के
सूखने भर की देर थी?
 कि जो भाषा न समझे उन्हें
प्रतिकों की परिभाषा समझ आने लगी?