बालिका वधू / अनीता सैनी
११जनवरी २०२५
……
बालिका वधू—
एक पात्र नहीं है,
ना ही
सफेद पंखों वाली मासूम परी है।
जिसके पंख काट दिए जाते हैं,
हाथ की छड़ी छीन ली जाती है।
तब उसका जादू
घर की चारदीवारी में नहीं चलता,
और सिर पर रखा पानी का मटका
हाथों से बार-बार गिर जाता है।
कभी चूल्हे की रोटी जल जाती है,
और
जली रोटी उसे आत्मग्लानि से भर देती है।
वह भी नहीं,
जिसमें पूरा परिवार
पच्चीस-तीस वर्ष की युवती ढूंढ़ता है।
और वह भी नहीं,
जिसके
पायल-बिछुआ चुभने पर
मां के सामने बच्ची की तरह
बिलख-बिलखकर रोती है।
वह तो कतई नहीं,
जिसने घूंघट न निकालने की ज़िद में
सप्ताहभर खाने का मुंह न देखा हो।
यह एक गांठ है,
पुरुष के अहं की गांठ,
जिसे एक स्त्री ताउम्र गूंथती है—
रूप-रंग, हाव-भाव, स्वभाव
और चरित्र की जड़ी-बूटियों से।
और एक दिन पुरुष इसे
खोलने की जद्दोजहद में अंधा हो जाता है।
इतना अंधा कि वह
अंधेपन में कई-कई ग्रंथ रच देता है।
और समय इसे
समझ न पाने की पीड़ा से जूझता है।
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