अधूरे सत्य की पूर्णता / अनीता सैनी
१८जनवरी २०२५
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"स्त्री अधूरेपन में पूर्ण लगती है।"
इस वाक्य का
विचारों में बनता स्थाई घर
अतीत पर कई प्रश्नचिह्न लगता है।
उससे कोई फर्क नहीं पड़ता
कि वह,
कितना बीमार और उदास था।
वर्तमान पर पड़ते निशान
भविष्य को अंधा ही नहीं करते,
धरती की काया,
उसकी आत्मा बार-बार तोड़ते हैं।
उन्हें नहीं लिखना चाहिए
कि नैतिकता फूल है,
या
फूलों से खिलखिलाता बगीचा है।
उन्हें लिखना चाहिए
कि स्वस्थ नैतिकता से
लदे फूलों की जड़ों में भी मरघट हैं,
सूखा जंगल है,
जहाँ सूखी टहनियाँ, कांटे ही नहीं,
जड़ें भी पाँव में चुभती हैं।
पूर्वाग्रह टूटने के लिए बने हैं,
टूट जाने चाहिए,
वे ताजगी देते हैं,
पीड़ा नहीं।
वह,
अपना सब कुछ खो देना चाहती है।
इसलिए नहीं
कि वह एक पीड़ित पितृभूमि से है,
इसलिए भी नहीं
कि उसके पैरों पर लगी मिट्टी
आज भी उस पर हँसती है।
इसलिए
कि वह
अपनी सच्चाई से प्रेम करती है।
गहन भावों को टटोलती विचारणीय अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २१ जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंवाह!प्रिय अनीता ,लाजवाब!
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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