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सोमवार, फ़रवरी 17

निराशा का आत्मलाप


निराशा का आत्मलाप / अनीता सैनी

१६फरवरी २०२४

….

उबलता डर

मेरी नसों में

अब भी

सांसों की गति से तेज़ दौड़ रहा है,

जो कई रंगों में रंगा,

चकत्तों के रूप में

मेरी आँखों में उभर-उभर कर

आ रहा है।


आँखों से संबंधित रोग की तरह,

जो

मेरी काया को धीरे-धीरे ठंडा कर रहा है

और आत्मा को गहरे शून्य में डुबो रहा है।


अलविदा—

गहरे कोहरे में हिलता हाथ,

या जैसे

कोई समंदर के बीचो-बीच

डूबता हुआ एक हाथ।


मुझे पता है,

यह एक कछुए का हाथ है,

परंतु

ये मेरे वे निराशाजनक दृश्य हैं,

जिन्हें मुझे अकेले ही जीना है।