निराशा का आत्मलाप / अनीता सैनी
१६फरवरी २०२४
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उबलता डर
मेरी नसों में
अब भी
सांसों की गति से तेज़ दौड़ रहा है,
जो कई रंगों में रंगा,
चकत्तों के रूप में
मेरी आँखों में उभर-उभर कर
आ रहा है।
आँखों से संबंधित रोग की तरह,
जो
मेरी काया को धीरे-धीरे ठंडा कर रहा है
और आत्मा को गहरे शून्य में डुबो रहा है।
अलविदा—
गहरे कोहरे में हिलता हाथ,
या जैसे
कोई समंदर के बीचो-बीच
डूबता हुआ एक हाथ।
मुझे पता है,
यह एक कछुए का हाथ है,
परंतु
ये मेरे वे निराशाजनक दृश्य हैं,
जिन्हें मुझे अकेले ही जीना है।