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सोमवार, फ़रवरी 17

निराशा का आत्मलाप


निराशा का आत्मलाप / अनीता सैनी

१६फरवरी २०२४

….

उबलता डर

मेरी नसों में

अब भी

सांसों की गति से तेज़ दौड़ रहा है,

जो कई रंगों में रंगा,

चकत्तों के रूप में

मेरी आँखों में उभर-उभर कर

आ रहा है।


आँखों से संबंधित रोग की तरह,

जो

मेरी काया को धीरे-धीरे ठंडा कर रहा है

और आत्मा को गहरे शून्य में डुबो रहा है।


अलविदा—

गहरे कोहरे में हिलता हाथ,

या जैसे

कोई समंदर के बीचो-बीच

डूबता हुआ एक हाथ।


मुझे पता है,

यह एक कछुए का हाथ है,

परंतु

ये मेरे वे निराशाजनक दृश्य हैं,

जिन्हें मुझे अकेले ही जीना है।


6 टिप्‍पणियां:

  1. अलविदा—
    गहरे कोहरे में हिलता हाथ,
    या जैसे
    कोई समंदर के बीचो-बीच
    डूबता हुआ एक हाथ।
    सुंदर रचना
    आभार
    वंदन
    .....
    पुनः..
    रविवार दिनांक 2 मार्च 2025 को आपकी ओर से आपकी पसंदीदा रचनाओं के पांच लिंक चाहिए
    कृपया शनिवार तक दीजिएगा
    सादर वंदन

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर नमस्कार सर।
      जी अवश्य 🙏
      मैं जल्द ही आपको पाँच रचनाएँ मेल करती हूँ।
      हार्दिक आभार आपका 💐

      हटाएं
  2. निराशा के अंतिम छोर पर आशा की किरण ,जीवन-चक्र का सार ही यही है।
    सादर।
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार १८ जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. मार्मिक रचना, निराशा के पलों का सजीव चित्रण !

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर मार्मिक रचना।

    जवाब देंहटाएं