स्मृति के छोर पर / अनीता सैनी
२२ अप्रैल २०२५
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अपने अस्तित्व से मुँह फेरने वाला व्यक्ति,
उस दिन
एक बार फिर जीवित हो उठता है,
जब वह धीरे-धीरे
अपने अब तक के, जिए जीवन को
भूलने लगता है।
उसे समझ होती है तो बस इतनी कि
धीरे-धीरे भूलना
और
अचानक सब कुछ भूल जाना —
इन दोनों में अंतर है।
एक जीवन है,
तो दूसरा मृत्यु।
उसे जीवन मिला है —
वह धीरे-धीरे स्वयं को भूल रहा है,
क्योंकि वह अब भी
भोर को ‘भोर’ के रूप में पहचानता है।
जब वह सुबह उठता है,
तो वह
सुबह को ‘सुबह’ के रूप में पहचानता है।
वह
‘न पहचान पाने’ की पीड़ा को भी पहचानता है।
वह दिन में नहीं सोता —
इस डर से नहीं कि रात को उठने पर
कहीं वह रात को
‘रात’ के रूप में पहचान न पाया तो,
बल्कि इसलिए
कि वह
दिन को ‘दिन’ के रूप में पहचानता है,
और स्वयं को पुकारता है
टूटती पहचान की अंतिम दीवार की तरह।
बहुत सुंदर
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