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मंगलवार, नवंबर 26

छांव में छिपे रंग

छांव में छिपे रंग / अनीता सैनी 
२४नवंबर २०२४
….

एक दिन तुम
गहरी नींद से जागोगे 
और पाओगे
मिथ्या, कल्पना जैसा कुछ नहीं होता,
जो सभी कुछ होता है, यथार्थ होता है।

तब तुम्हें दिखेंगे
श्वास लेते स्वप्न।
नवंबर की गुनगुनी धूप
तुम्हारी पीठ पर
कई-कई कविताएँ लिखेगी।

परंतु तब तुम पढ़ना
ठंड में ठिठुरते प्रतीक्षारत पत्तों की कहानियाँ।
तुम्हारे भाव तुम्हें विचलित करेंगे,
वे प्रतीक्षा को मिथक 
और
प्रीत को कल्पना कहेंगे।

तुम्हारे आस-पास तुम्हें कहीं नहीं दिखेगी
विरह की छाँव
और
वे विरहणियाँ, जो …।

तब तुम गाँव लौट जाना।
पगडंडियाँ भ्रमित करेंगी 
ईर्ष्यालु काँटे पाँव को चोटिल करेंगे।
 फिर भी तुम्हें 
 कांस से घायल हवा पुकारती हुई आएगी,
वह दिखाएगी
बरगद के नीचे बने चबूतरे को,
जहाँ
दुःख बहुतों द्वारा कुचला जाता है।



रविवार, नवंबर 17

हिज्र के साए


हिज्र के साए/ अनीता सैनी
१६ नवंबर २०२४

एक दिन
पर्वतों की पीड़ा धोने
अंबर ने बरसाया था हिज्र का नमक।

खपरैल टूटी थी समंदर की,
वे चुपचाप पी गए हर बूंद,
पर नदियाँ प्यासी रह गईं।

उखड़ी साँसें,
प्यास का बोझ 
वे भटकती रहीं जंगल-जंगल।

उस नीले कोरे काग़ज़ की तरह
जिसे न प्रेमी से लिखा गया,
न ही प्रेमिका से पढ़ा गया।

वह तारीख बनकर
धरती की आत्मा में धड़कता रहा,
उगता रहा
वर्ष दर वर्ष,
मरुस्थल की काया पर
नागफनी का दर्द लिए।



गुरुवार, नवंबर 14

अवसान के निशान


अवसान के निशान / अनीता सैनी 
९नवंबर २०२४
…..

जैसे-जैसे
उम्र का सिरहाना लेकर काया सोती है,
असल में तब वह जागती है।
तब वह कविताएँ नहीं रचती,
वह अपने ही पैरों के निशान लिखती है।

और एक दिन वह अपने ही
रचे को नकार देती है,
और कहती है —
"यह जो कहा गया है, सब झूठ है,
सच इन्हीं के कहीं पीछे छिप गया है,
बहुत पीछे।"

जैसे- 
चाँद छिप जाता है बादलों की ओट में,
और उसके साथ जुड़ जाता है,
होने न होने का गहरा आभास।

और तब,
सच की ऊँगली पकड़कर चलना
उसके लिए
एक और झूठ बन जाता है।

रविवार, नवंबर 3

अंतिम थपकी

अंतिम थपकी/ अनीता सैनी

२ नवंबर २०२४

….

जब जीवन के आठों पहर सताते हैं,

और तब जो थपकी देकर सुलाती है,

वही मृत्यु है।


 चार्ल्स बुकोवस्की ने कहा-

मृत्यु और अधिक मृत्यु चाहती है, 

और उसके जाल भरे हुए हैं:

मैंने कहा- 

नहीं, मृत्यु और अधिक मृत्यु नहीं चाहती है

वह और अधिक समर्पण चाहती है।

आसक्त जीवन से

प्रेमिकाओं वाला प्रेम चाहती है।


बहुत बुरी लगती हैं उसे पत्नियों वाली दुत्कार,

 समय गवाए बगैर

उसकी व्याकुलता भेजती है

छोटे-छोटे संदेश, छोटी-छोटी आहटें।


परंतु! उन्हें पढ़ा और सुना नहीं जाता,

अनभिज्ञता की आड़ में

उन्हें अनदेखा-अनसुना किया जाता है।


एकाकीपन नहीं है न किसी के पास 

कोई कैसे पढ़ें और सुनें?

तुम उन्हें पढ़ना और सुनना —

उसे पढ़ना-सुनना शांति को स्पर्श करने जैसा है

गुरुवार, अक्तूबर 24

अज्ञात की ओर

अज्ञात की ओर /अनीता सैनी 
२०अक्टूबर २०२४
...
उस दिन
उस
दिशा के एक कोने ने
विचारों से भरे भारी-भरकम
नियति के मंगलसूत्र को उतारकर
संभावना की छोटी-सी अंगूठी पहनी थी।
तुम ठीक से देख नहीं पाए।
उस दिन वह
भीड़ में अकेली
और
बेड़ियों में आज़ाद थी।

गुरुवार, अक्तूबर 3

प्रवाह के पार

प्रवाह के पार /अनीता सैनी 
३०सितंबर २०२४
….
ये जो क़लम से कागज पर
भावों की नदियाँ बहती हैं, ये 
सुखों की कहानियाँ कहती हैं,
तुमने शायद ठीक से पढ़ी नहीं।
वैसे ही जैसे
तुमने ठीक से देखा नहीं कि
मछलियाँ पानी के प्रवाह के
विपरीत नहीं तैरती,
वे अपने प्रस्थान बिंदु
उस अथाह सागर में फिर से 
मिलने दौड़ती हैं
जहाँ से वे बिछड़ी थीं।

यह दृश्य विचारों का सूक्ष्म बिंदु है,
वैसे ही जैसे
दुःख की चोटी के गर्म पत्थर पर
जो घुटने मोड़ कर बैठा है,
और जो
बार-बार तलवों में जलन की पीड़ा से
उँगलियाँ उचका रहा है,
वह कोई और नहीं, सुख ही है।

मंगलवार, सितंबर 24

भोर का पक्षी

भोर का पक्षी / अनीता सैनी 
२१सितंबर२०२४
…..
 सदियों में कभी-कभार 
एक-आध ऐसी रात भी आती हैं,
जब उजाले की प्रतीक्षा में
भोर का यह पक्षी सारी रात गाता है
विरह-गीत।

 प्रिय के 
पदचाप नहीं सुनाई देने पर 
वह पत्तों पर चिट्ठी लिखता है 
तब और कुछ नहीं, बस हल्की पीड़ा
और उसकी सांसें ठंडी पड़ जाती हैं।

ऋषि-मुनियों के दिए श्राप,
एक-एक कर
उसकी आत्मा पर उभर आते हैं।
और वह 
अहिल्या की तरह पत्थर हो जाती है।

वे लोग कहते हैं-
तब और कुछ नहीं!
बस,उस मौसम में वह उड़ नहीं पाता।

गुरुवार, सितंबर 19

प्रेम

प्रेम / अनीता सैनी 
१६सितंबर२०२४
…..
मरुस्थल वैराग्य नहीं 
प्रेम है!
प्रेम! बर्फ़ का मरुस्थल है
शांत - शीतल पवित्र 
ठण्डा! एकदम ठण्डा!!
प्रेम!
सांसों का मौन विलाप नहीं 
पुराने पीले पड़ चुके
 इतिहास के पंन्नों से होकर गुजरा 
एक नया विलाप भी नहीं 
तुम! 
पीड़ा को इंद्रियों में तौलकर 
स्वयं भ्रमित हो 
वह ठण्डी ज्वाला है
प्रेम! 
धरती के नमक में डूबी आँखें हैं।

गुरुवार, सितंबर 12

खिड़कियों से परे

खिड़कियों से परे / अनीता सैनी 

७सितम्बर२०२४

…..

उनकी 

आत्मा में गहरी संवेदनाएँ हैं 

वे कहते हैं 

स्त्रियाँ गाय हैं चिड़िया हैं 

भेड़ और बकरिया भी हैं 

उनके कंधों पर सरकती घरों की दीवारें 

वे मुख्य द्वार से निकलने की हकदार नहीं हैं 

वे दरारों और खिड़कियों से झाँकतीं हैं 

जैसे झाँकते हैं दरारों से नीम-पीपल 

समय के द्वारा

समय-समय पर दरारें

गोबर-मिट्टी के गारे से लिपी-पुती जाती हैं 

उनकी अस्थिर आँखें बोलने में असमर्थ हैं 

इस तरह उनके कान उनके के लिए मुँह हैं 

परंतु

वे वृक्ष नहीं हैं 

उन्हें सदियों से वृक्ष के चित्र दिखाकर 

उनसे 

फल-फूल और लकड़ियाँ प्राप्त की जाती रही हैं 

नाइट्रोजन की अपेक्षा ऑक्सीजन के कीड़े 

उन्हें अधिक तेजी से निगलते रहे हैं 

फिर भी वे नींद से जाग नहीं पाई 

वे नहीं जान पाई कि वे स्त्रियाँ हैं 

उन्होंने स्वयं के लिए अंधेरा चुना 

उसमें उन्हें 

उजाले के चमकते दाँत व नाख़ून दिखाई देते हैं 

उन्हें दाँत और नाख़ून ही दिखाए गए हैं 

वे कहती हैं -

“हे अंधेरा ! तुम में चेतना है 

तुम में ग्रेवीटी है

तुम सपनों के ब्लेकहॉल हो

तुम पुकारते हो तुम्हारी पुकार हमें सुनती है 

तुमसे बातें करना महज पागलपन नहीं 

अस्तित्व है तुम्हारा 

तुम्हारा गलबाँह में जकड़ना सुकून प्रद है  

गहरे समंदर में डूबने पर 

तलहटी की इच्छा कहाँ रहती है?”

इस तरह वे 

भावनाओं की गहरी घाटियों से उलझती 

और डूबती रही बहुत गहरे में 

 गाय तो कभी चिड़िया  की तरह।